Saturday, 16 February 2019

दुब्रोव्स्की - 19


दुब्रोव्स्की- 19


ऊँघते हुए जंगल के बीचोंबीच एक सँकरे घास के मैदान में एक छोटा-सा ज़मीन का टुकड़ा था जिसमें एक टीला और एक गहरा बड़ा गड्ढा भी था, जिसके उस पार कुछ झोंपड़ियाँ और गड्ढे में घास-फूस से ढँकी कुछ रिहायशी कोठरियाँ थीं. 

आँगन में कई लोग थे, जिन्हें वेशभूषा की विविधता एवम् हथियारों से लैस होने के कारण पहचानना मुश्किल न था, वे डाकू थे. इस समय वे बगैर टोपियों के, एक बड़े बर्तन के चारों ओर बैठे हुए खाना खा रहे थे. टीले पर रखी एक छोटी तोप के निकट पहरेदार बैठा था, अपने पैर मोड़े हुए अपने कपड़ों में इतनी सफ़ाई से पैबन्द लगा रहा था, जिससे दर्जी की उत्तम कारीगरी का पता चलता था, वह हर घड़ी चारों ओर देख लेता था.

हालाँकि एक सुराही कई बार हाथोंहाथ उस जमघट में घूम चुकी थी, फिर भी यहाँ एक अजीब-सी ख़ामोशी छाई थी. डाकू खाना खा चुके, एक के बाद एक उठकर उन्होंने ईश्वर की प्रार्थना की, कुछ झोंपड़ियों में चले गए और कुछ जंगल में टहलते रहे या फिर वहीं विश्राम करने लगे.
पहरेदार ने अपना काम ख़त्म किया, अपने चीथड़े फेंके, पैबन्द की ओर देखकर ख़ुश हुआ, आस्तीन में सुई खोंसी और तोप की नली पर बैठकर उसने उदासी भरा एक पुराना गीत छेड़ दिया :

न मचा शोर, प्यारे हरे चीड़,
न सता, सोचने दे अपने मन की पीर.

इसी समय एक झोंपड़ी का किवाड़ खुला और सफ़ेद कपड़ा सिर पर बाँधे, सलीके से कपड़े पहनी हुई एक बुढ़ी देहलीज़ पर दिखाई दी. “बस हो गया, स्त्योप्का”, उसने क्रोधित होकर कहा, “मालिक सो रहे हैं, और तुम गला फ़ाड़ रहे हो, तुममें कुछ दया, कुछ विवेक है या नहीं!” “माफ़ करना, ईगरोव्ना”, स्त्योप्का ने जवाब दिया, “अच्छा, अब नहीं करूँगा! उसे, हमारे मालिक को, आराम करने दो और जल्दी से अच्छा हो जाने दो.” बुढ़िया चली गई और स्त्योप्का वहीं टीले पर चहल-कदमी करने लगा.
उस झोंपड़ी में, जहाँ से बुढ़िया बाहर निकली थी, दीवार के पीछे ज़ख़्मी दुब्रोव्स्की एक खटिया पर लेटा था. उसके सामने मेज़ पर उसकी पिस्तौलें पड़ी थीं, और ऊपर तलवार टँगी थी. यह झोंपड़ी महँगे कालीनों से सजी थी, कोने में एक चाँदी की सिंगार मेज़ रखी थी. दुब्रोव्स्की के हाथ में एक खुली किताब थी, मगर उसकी आँखें बन्द थीं. दीवार के दूसरी ओर से उसे देख रही बुढ़िया यह समझ नहीं पा रही थी कि वह सो रहा है, या सिर्फ गहरी सोच में डूबा है.

अचानक दुब्रोव्स्की सिहर उठा : साथ ही कुछ हलचल होने लगी और स्त्योप्का ने खिड़की से सिर घुसाकर अन्दर झाँका, “मालिक, व्लादीमिर अन्द्रेयेविच”, वह चिल्लाया, “हमारे लोग सन्देश दे रहे हैं, हमें ढूँढ़ा जा रहा है.” दुब्रोव्स्की खटिया से उछला, हथियार हाथ में पकड़े और झोंपड़ी से बाहर निकला. डाकू शोर मचाते हुए आँगन में इकट्ठे हो गए थे, उसके आते ही गहरा सन्नाटा छा गया.

“सब यहीं हैं?” दुब्रोव्स्की ने पूछा.

“सभी हैं, सिवा जासूसों के”, उसे जवाब मिला.

“अपनी-अपनी जगह!” दुब्रोव्स्की चिल्लाया, और डाकू अपने-अपने निश्चित स्थान पर खड़े हो गए. इसी समय तीन जासूस भागे-भागे दरवाज़े तक आए. दुब्रोव्स्की उनकी ओर बढ़ा. “क्या हुआ?” उसने पूछा.

“जंगल में सिपाही हैं,” उन्होंने जवाब दिया, “हमें घेर रहे हैं.”

दुब्रोव्स्की ने द्वार बन्द करने की आज्ञा दी, और स्वयम् तोप का निरीक्षण करने चला गया. जंगल में कई लोगों की आवाज़ें सुनाई दीं, जो नज़दीक आ रही थीं, डाकू ख़ामोशी से इंतज़ार कर रहे थे. अचानक तीन-चार सिपाही जंगल में दिखाई दिए और उन्होंने फ़ौरन गोलियाँ चलाकर अपने साथियों को जानकारी दी.

“लड़ाई की तैयारी करो,” दुब्रोव्स्की ने कहा और डाकुओं के मध्य एक सरसराहट दौड़ गई, जो शीघ्र ही शांत हो गई. तब निकट आते फ़ौजी दस्ते का शोर सुनाई दिया, पेड़ों के बीच हथियार चमक उठे, करीब पचास सिपाही जंगल से निकलकर टीले की ओर दौड़े. दुब्रोव्स्की ने गोला दाग़ा, जो निशाने पर लगा : एक का सिर उड़ गया, दो ज़ख़्मी हो गए. सिपाहियों में खलबली मच गई, मगर उनका अफ़सर आगे बढ़ा, सिपाही उसके पीछे-पीछे चलकर कुंज में घुसे, डाकुओं ने बन्दूकों से उन पर गोलियाँ चलाईं और हाथ में कुल्हाड़ियाँ लिए अपने टीले की रक्षा करने लगे, जिस पर उन्माद से भरे सिपाही चढ़े आ रहे थे, अपने पीछे गड्ढे में बीस ज़ख़्मी साथियों को छोड़कर. आमने-सामने लड़ाई होने लगी, सिपाही टीले पर पहुँच चुके थे, डाकू पीछे हटने लगे, मगर दुब्रोव्स्की अफ़सर के निकट गया और उसके सीने पर पिस्तौल रखकर चला दी, अफ़सर वहीं ढेर हो गया, कुछ सिपाही उसे हाथों पर उठाकर जंगल से बाहर ले गए, और अन्य सिपाही अपने मुखिया को खोकर वहीं रुक गए. डाकुओं ने, जिनकी हिम्मत बढ़ गई थी, इस मौके का फ़ायदा उठाया, उन्होंने उनका पीछा किया, उन्हें खाई में घेर लिया, वे भागे, डाकू चीख़ते हुए उनके पीछे भागे. विजय निश्चित हो चुकी थी. दुश्मन के सम्पूर्ण विनाश का इत्मीनान करके दुब्रोव्स्की अपने साथियों को छोड़कर बुर्ज़ में बन्द हो गया, उसने ज़ख़्मियों को उठाने की, पहरा दुगुना करने की आज्ञा दी, और सबसे कहा कि वे निकट ही रहें.

इन घटनाओं ने सरकार का ध्यान दुब्रोव्स्की के डाकों की तरफ़ आकर्षित किया. उसके निवास के बारे में जानकारी एकत्रित की गई. सिपाहियों का एक पूरा दस्ता भेजा गया, जिससे उसे ज़िन्दा या मुर्दा पकड़ा जा सकें. उसके गिरोह के कुछ सदस्यों को पकड़ लिया गया, और उनसे पता चला कि उनके बीच दुब्रोव्स्की नहीं है. उस मुठभेड़ के कुछ दिनों बाद उसने अपने सभी साथियों को बुलाया, उनसे कहा, कि वह हमेशा के लिए उन्हें छोड़कर जा रहा है, उन्हें भी अपने जीवन का ढंग बदलने की सलाह दी.

“मेरे नेतृत्व में तुम लोग काफ़ी धन कमा चुके हो, हरेक का व्यक्तित्व इस तरह का है, कि वह दूर-दराज़ के किसी प्रदेश में जाकर अपना जीवन ईमानदारी से बिता सकता है. मगर तुम सब लोग गुण्डागर्दी करने वाले हो और अपना यह काम छोड़ना नहीं चाहते”.

इतना कहकर एक को साथ लेकर उन्हें छोड़कर चला गया. कोई नहीं जानता कि वह कहाँ गया.

पहले तो इन सूचनाओं की सत्यता पर विश्वास नहीं किया गया : अपने सरदार के प्रति डाकुओं की समर्पण भावना विदित थी. यह सोच लिया गया कि वे उसे बचाना चाहते हैं. मगर बाद की घटनाओं ने उनके कथन की सत्यता को प्रमाणित किया: डाके, आगज़नी, लूटमार की घटनाएँ रुक गई थीं. रास्ते साफ़ हो गए. कुछ और सूत्रों से यह ज्ञात हुआ कि दुब्रोव्स्की विदेश में कहीं छिप गया है.

समाप्त

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