द्वितीय भाग
अध्याय-9
त्यौहार के उपलक्ष्य में लोग आने लगे. कुछ
ज़मीन्दार के घर में और निकट ही बने पार्श्वगृह में रुके, कुछ हरकारे के यहाँ, कुछ और पादरी के घर, कुछ किसानों के पास. अस्तबल
घोड़ों से भर गए थे, आँगनों और सरायों में विभिन्न प्रकार की
गाड़ियाँ भरी थीं. प्रातः नौ बजे प्रार्थना का समय निश्चित किया गया था, और सभी नये, पत्थरों से बने गिरिजाघर की ओर जा रहे
थे, जिसका निर्माण किरीला पेत्रोविच ने किया था और जो
प्रतिवर्ष उसी की लाई गई भेंट वस्तुओं से सजाया जाता था. श्रद्धालु भक्तों की
संख्या इतनी अधिक थी कि साधारण किसानों का गिरजे के अंदर घुसना संभव नहीं था,
अतः वे ड्योढ़ी में और आँगन में खड़े थे. प्रार्थना अभी शुरू नहीं हुई
थी, किरीला पेत्रोविच का इंतज़ार हो रहा था. वह छह घोड़ों वाली
गाड़ी में आया और समारोहपूर्वक अपने स्थान पर पहुँचा, साथ में
थी मारिया किरीलव्ना. पुरुषों एवम् महिलाओं की नज़रें उस पर टिक गईं, पुरुष उसके सौन्दर्य से चकित रह गए, महिलाएँ ध्यान
से उसके श्रुंगार को देखने लगीं. प्रार्थना आरंभ हुई, स्थानीय
गायक प्रार्थना गा रहे थे, किरीला पेत्रोविच भी, बिना दाएँ-बाएँ देखे, उनका साथ दे रहा था, और जब पादरी ने इस गिरजे के निर्माणकर्ता का नाम पुकारा तो गर्वीली नम्रता
के साथ वह ज़मीन तक अभिवादन की मुद्रा में झुक गया.
प्रार्थना समाप्त हो गई. सबसे पहले सलीब के पास
किरीला पेत्रोविच पहुँचा. सभी उसके पीछे-पीछे चले, तत्पश्चात् पड़ोसियों ने आदरपूर्वक उसका अभिवादन किया.
महिलाएँ माशा को घेरकर खड़ी हो गईं. किरीला पेत्रोविच ने गिरजे से बाहर निकलते हुए,
सबको अपने यहाँ भोज पर आमंत्रित किया, गाड़ी
में बैठा और घर चला गया. उसके पीछे सभी चले. कमरे मेहमानों से खचाखच भरे थे. हर
क्षण नए मेहमान प्रविष्ट होते और बड़ी कठिनाई से मेज़बान तक पहुँच पाते. महिलाएँ
अर्धगोल बनाते हुए बैठ गईं, आधुनिकतम फैशन से सुसज्जित,
महँगे श्रृंगार साधनों से मंडित, मोती और
हीरे-जवाहरात से लदी हुई; पुरुष तली हुई मछलियों और वोद्का
के निकट झुण्ड बनाए आपस में बहस कर रहे थे. हॉल में अस्सी व्यक्तियों के लिए मेज़
सजाई गई थी. सेवक भाग-भागकर बोतलें, जाम रख रहे थे, मेज़पोश बिछा रहे थे. आख़िर उनके मुखिया ने घोषणा की, “खाना लग गया है”, और किरीला पेत्रोविच सबसे पहले मेज़
पर जाकर बैठा, उसके पीछे महिलाओं ने कुछ ग़ुरूर के साथ
अपने-अपने स्थान ग्रहण किए, वे एक दूसरे के बड़प्पन का कुछ
लिहाज़ करते हुए एक दूसरे से सटकर बैठीं, मानो गरीब बकरियों
का कोई झुण्ड हो, और एक के पास एक बैठती गईं. उनके सामने
पुरुषों ने अपने स्थान ग्रहण किए. मेज़ के अंतिम किनारे पर नन्हे साशा की बगल में
बैठा शिक्षक.
सेवक मेहमानों के ओहदों के मुताबिक प्लेटें
लाने लगे, कभी-कभी
ओहदे का सही ज्ञान न होने पर अन्दाज़ से ही काम चला लेते, और उनका
अन्दाज़ कभी भी ग़लत नहीं निकलता. चमचों और तश्तरियों की खनखनाहट मेहमानों की शोरगुल
भरी बातचीत में घुल गई थी, किरीला पेत्रोविच ख़ुशी-ख़ुशी मेज़
पर नज़र रखे हुए था और अपनी मेहमाननवाज़ी का पूरा-पूरा आनन्द उठा रहा था. इसी समय
आँगन में छह घोड़ों वाली गाड़ी आकर रुकी. “यह कौन है?” मेज़बान
ने पूछा. “अन्तोन पाफ्नूतिच”, कुछ आवाज़ें बोलीं. दरवाज़ा खुला
और अन्तोन पाफ्नूतिच स्पीत्सिन, पचास वर्ष का मोटा, तिहरी ठोढ़ी से सुशोभित, गोल, चेचकरू
चेहरे वाला आदमी भोजन कक्ष में आ टपका, अभिवादन करता,
मुस्कुराता और क्षमा माँगने को तत्पर... “प्लेट यहाँ लाओ”, किरीला पेत्रोविच चीख़कर बोला, “मेहेरबानी करके बैठिए,
अन्तोन पाफ्नूतिच और हमें बताइये, कि इसका
क्या मतलब है : मेरी प्रार्थना सभा में आए नहीं, और भोज पर
भी देर से आए. यह तो तुम्हारी आदत नहीं है, तुम तो ईश्वर
भक्त हो, और भोजन भक्त भी”.
“माफ़ी चाहता हूँ”, अन्तोन पाफ्नूतिच ने गोल-गोल
डिज़ाइन वाले कफ़्तान पर रुमाल बाँधते हुए कहा, “माफ़ी चाहता
हूँ, हुज़ूर, किरीला पेत्रोविच, मैं तो घर से जल्दी ही निकल पड़ा था, मगर मुश्किल से
दस मील चला था, कि सामनेवाले पहिए का हाल टूट गया – क्या
करता? सौभाग्यवश गाँव निकट ही था, जब
तक वहाँ पहुँचे, लुहार को ढूँढ़ा, किसी
तरह काम करवाया, तीन घण्टे बीत गए, कुछ
भी नहीं किया जा सकता था. किस्तेनेव्को के जंगलवाले, नज़दीक
के रास्ते से आने की मेरी हिम्मत नहीं हुई, मैं लम्बा चक्कर
लगाकर आया...”
“ओहो!” किरीला पेत्रोविच ने बीच में ही टोका, “तुम शायद बहादुर नहीं हो,
डर किस बात का है?”
“किससे डरता हूँ, मतलब...हुज़ूर किरीला पेत्रोविच, दुब्रोव्स्की
से, बस यही डर लगा रहता है, कि कहीं
उसके हत्थे न चढ़ जाऊँ. उस बहादुर का निशाना चूकता नहीं, किसी
को भी वह छोड़ता नहीं है, और मेरी तो वह दो बार खाल निकलवा
लेगा”.
“तुम पर यह मेहेरबानी क्यों, मेरे भाई?”
“मुझ पर क्यों? क्या पूछते हैं, हुज़ूर, किरीला पेत्रोविच? स्वर्गीय अन्द्रेइ गव्रीलविच के
कष्टों के लिए! क्या मैंने आपकी ख़ुशी के लिए, बेशक, अपनी अन्तरात्मा की आवाज़ पर, और न्यायसंगत ढंग से,
यह सिद्ध नहीं किया था कि दुब्रोव्स्की बिना किसी अधिकार के किस्तेनेव्को
पर कब्ज़ा जमाए है, वह सिर्फ आपके प्यार की ख़ातिर ही तो किया
था. और मृतक ने (ख़ुदा उसे जन्नत नसीब करे) मुझसे निपट लेने का वादा किया था,
और बेटा बाप की कसम ज़रूर पूरी करेगा. अब तक तो ख़ुदा ने बचाया है.
फिर भी मेरा एक गोदाम लूट लिया है, देखते-ही-देखते मेरे घर
तक भी आ पहुँचेगा.”
“घर में तो उसकी पाँचों घी में होंगी”, किरीला पेत्रोविच ने फ़िकरा कसा,
“लाल सन्दूक ठसाठस भरा है...”
“कहाँ से हुज़ूर, किरीला पेत्रोविच! मगर अब
बिल्कुल ख़ाली है.”
“बस भी करो झूठ बोलना, अन्तोन पाफ्नूतिच! हम ख़ूब
जानते हैं आपको; पैसा तुम खर्च ही कहाँ करते हो, घर में इतनी कंजूसी से रहते हो, किसी मेहमान को कभी
बुलाते नहीं, अपने बंधुआ सेवकों को लूटते हो, धन जमा करते रहो, बस इतना ही काफ़ी है.”
“आप मज़ाक कर रहे हैं, हुज़ूर किरीला पेत्रोविच,”
अन्तोन पाफ्नूतिच बोला और हम, “ऐ ख़ुदा,
कंगाल हो गए”, और अन्तोन पाफ्नूतिच ने हुज़ूरी
मज़ाक को मछली के रोल के तर टुकड़े के साथ खाना चाहा. किरीला पेत्रोविच ने उसे छोड़कर
नए पुलिस कप्तान की ओर अपना मोर्चा बढ़ाया, जो उसके घर पहली
बार आया था और मेज़ के दूसरे कोने पर शिक्षक की बगल में बैठा था.
“तो, पकड़ पायेंगे आप दुब्रोव्स्की को, कप्तान
महोदय?”
कप्तान कुछ सकुचाया, झुका, मुस्कुराया,
हकलाया और आख़िरकार बोला:
“कोशिश कर रहे हैं, माननीय महोदय.”
“हुँ, कोशिश कर रहे हैं. बहुत-बहुत दिनों से कोशिशें की जा रही
हैं, मगर नतीजा कुछ भी नहीं निकला. हाँ, ठीक ही तो है, उसे पकड़ा ही क्यों जाए! दुब्रोव्स्की
के डाके तो पुलिसवालों के लिए वरदान हैं : दौरे करना, छानबीन
करना, निष्कर्ष निकालना और पैसे जेब में डालना! ऐसे
उपकारकर्ता को कोई कैसे पकड़ सकता है? ठीक है न, कप्तान महाशय?”
“बिल्कुल सही फ़रमाया, आदरणीय जनाब”, पूरी तरह परेशान हो गए पुलिस कप्तान ने जवाब दिया.
मेहमानों ने ठहाका लगाया.
“इस नौजवान को उसकी ईमानदारी के कारण मैं चाहता
हूँ”, किरीला
पेत्रोविच ने कहा, “मगर स्वर्गीय कप्तान तरास अलेक्सेयेविच
के लिए मुझे बहुत अफ़सोस है – यदि उसे जलाया न गया होता, तो
पूरे इलाके में शांति रहती. और, दुब्रोस्की के बारे में कुछ
सुना है क्या? पिछली बार उसे कहाँ देखा गया?”
“मेरे घर, किरीला पेत्रोविच” किसी महिला की
मोटी आवाज़ गूँजी, “पिछले मंगलवार को उसने मेरे यहाँ भोजन
किया था...”
सबकी निगाहें आन्ना सवीष्ना ग्लोबवा की ओर घूम
गईं. इस सीधी-सादी विधवा को उसकी भलमनसाहत और हँसमुख स्वभाव के कारण सभी प्यार
करते थे. सभी बड़े चाव से उसकी कहानी सुनने के लिए तैयार हो गए.
“यह बता देना ज़रूरी है, कि तीन सप्ताह पूर्व मैंने
अपने हरकारे को डाकचौकी भेजा, मेरे वान्यूश्का को पैसे भेजने
के लिए. बेटे का मैं फ़िज़ूल लाड़ नहीं करती, चाहूँ भी तो नहीं,
उतनी सामर्थ्य ही नहीं है मेरी, फिर भी आप
जानते ही होंगे कि सेना के अफ़सर को एक अच्छे स्तर की ज़िन्दगी जीना होती है,
और मैं वान्यूशा को, अपनी छोटी-सी आमदनी में
से जितना संभव हो, भेजती रहती हूँ. तो, उसे भेजे मैंने दो हज़ार रूबल्स, दुब्रोव्स्की का
ख़याल एक भी बार मेरे दिमाग़ में नहीं आया, सोचा, शहर नज़दीक ही तो है – सिर्फ सात मील- ख़ुदा मेहेरबानी करेगा. देखती क्या
हूँ, शाम को मेरा हरकारा वापस आया, मुख
का रंग उड़ा हुआ, खरोंचे लिए, पैदल –
मैं चीख पड़ी. यह क्या है? तुम्हें हुआ क्या है? उसने मुझसे कहा, “माँ, आन्ना
सवीष्ना, डाकुओं ने लूट लिया; मुझे भी
मार-मारकर अधमरा कर दिया; दुब्रोव्स्की ख़ुद था वहाँ, मुझे सूली पे लटकाना चाहता था, मगर दया करने छोड़
दिया, पर सब कुछ ले लिया, घोड़ा और गाड़ी
भी ले ली. मैं सकते में आ गई, ऐ ख़ुदा, मेरे
ख़ुदा, मेरे वान्यूशा का क्या होगा? कुछ
भी नहीं किया जा सकता था : मैंने बेटे को ख़त लिखा, पूरी बात
बताते हुए, बिना एक छदाम के उसे बस अपना आशीर्वाद भेज दिया.
एक हफ़्ता बीता, दूसरा भी बीता, अचानक मेरे आँगन में
एक गाड़ी रुकी. कोई जनरल मुझसे मिलना चाहता था, मैंने अन्दर
आने का निमंत्रण दिया, करीब पैंतीस वर्ष का एक व्यक्ति भीतर
आया – साँवला, काले बालों वाला, मूँछें,
दाढ़ी मानो कूल्नेव की तस्वीर हो, अपना परिचय
दिया – स्वर्गीय पति इवान अन्द्रेयेविच का मित्र एवम् सहयोगी कहकर, वह इस तरफ़ से गुज़र रहा था और उसकी विधवा के यहाँ बिना गए आगे न बढ़ सका,
क्योंकि उसे मालूम था कि मैं यहाँ रहती हूँ. मैंने उसका यथासम्भव
स्वागत किया, इधर-उधर की बातें होती रहीं, आख़िर में दुब्रोव्स्की का ज़िक्र छिड़ा. मैंने उसे अपनी व्यथा सुनाई. मेरे
जनरल ने नाक-भौंह सिकोड़े, “बड़ी अजीब बात है,” उसने कहा, “मैंने सुना है कि दुब्रोव्स्की यूँ ही हर
किसी पर आक्रमण नहीं करता, वह सिर्फ सुप्रसिद्ध धनवानों को
लूटता है, और वह भी उनका थोड़ा-सा धन, न
कि उन्हें पूरा का पूरा लूटता है, और उस पर किसी की जान लेने
का आरोप तो है ही नहीं, कहीं कोई गड़बड़ तो नहीं – अपने हरकारे
को बुलवाइए”.
हरकारे को बुलवाया गया, वह आया, मगर जैसे ही उसने जनरल को देखा पाषाणवत् खड़ा ही रह गया.
“मुझे बताओ तो, भाई, कि दुब्रोव्स्की ने तुम्हें
कैसे लूटा और कैसे वह तुम्हें सूली पर चढ़ाना चाहता था?”
मेरा हरकारा थरथर काँपने लगा और जनरल के पैरों
पर गिर पड़ा. “हुज़ूर, कुसूरवार हूँ, पाप कर बैठा, झूठ
बोला.”
“अगर ऐसी बात है”, जनरल ने जवाब में कहा, “तो मालकिन को यह बताने की तकलीफ़ फ़रमाओ, कि क्या-क्या
हुआ, और मैं सुन रहा हूँ.”
हरकारा बड़ी देर तक होश-हवास काबू में न ला सका.
“चलो,” जनरल ने फिर कहा, “कहो, तुम कहाँ मिले दुब्रोव्स्की से?”
“दो पाइनवृक्षों के पास, हुज़ूर, दो
पाइनवृक्षों के पास.”
“उसने तुमसे क्या कहा?”
“उसने पूछा,’किसके नौकर हो, कहाँ जा रहे हो और
क्यों जा रहे हो?”
“फिर बाद में?”
“और बाद में उसने पैसे और ख़त माँगा.”
“आगे.”
“मैंने उसे ख़त और पैसे दे दिए.”
“और उसने?...बोलो, उसने?”
“हुज़ूर, कुसूरवार हूँ...”
“फिर उसने क्या किया?”
“...उसने मुझे पैसे और ख़त लौटा दिए और कहा, ख़ुदा का नाम लेकर जाओ, इसे डाकचौकी में दे दो”.
“और तुमने?”
“हुज़ूर, कुसूरवार हूँ...”
“मैं तो प्यारे, तुम्हारी अच्छी ख़बर लूँगा,” जनरल ने
गरजते हुए कहा, “और आप, महोदया,
इस दुष्ट के सन्दूक की तलाशी लीजिए, और इसे
मेरे हवाले कर दीजिए, और मैं इसे सबक सिखाऊँगा. यह जान लीजिए,
कि दुब्रोव्स्की स्वयम् सेना का अफ़सर रह चुका है, वह अपने सहयोगियों का अपमान नहीं करता.”
मैं समझ रही थी कि वह महाशय कौन थे, मुझे उनसे बहस करने की कोई
ज़रूरत नहीं थी. गाड़ीवानों ने हरकारे को गाड़ी के साथ बाँध दिया. पैसे मिल गए,
जनरल ने मेरे यहाँ भोजन किया, फिर तुरन्त
रवाना हो गया और जाते-जाते हरकारे को भी अपने साथ ले गया. मेरा हरकारा दूसरे दिन
जंगल में मिला, चीड़ के पेड़ से बंधा हुआ, नींबू के काँटों जैसा खुरदुरा.”
सभी ख़ामोशी से आन्ना सवीष्ना की कहानी सुन रहे
थे, ख़ासकर
महिलाएँ. उनमें से कइयों ने तो उसे मन-ही-मन शुभकामनाएँ भी दे डालीं, उसमें अपनी कल्पना के नायक को देख, ख़ासकर मारिया
किरीलव्ना ने, जो अपने सपनों की दुनिया में खोई रहती थी,
रेडक्लिफ़ के गुप्त ख़ौफ़ को अपने भीतर समाए थी.
“और तुम, आन्ना सवीष्ना यह कहना चाहती हो, कि
तुम्हारे यहाँ ख़ुद दुब्रोव्स्की आया था,” किरीला पेत्रोविच
ने पूछा, “गलती कर रही हो. यह तो नहीं जानता कि तुम्हारे
यहाँ मेहमान बनकर कौन आया था, मगर इतना ज़रूर है, कि वह दुब्रोव्स्की नहीं था.”
“कैसे नहीं था दुब्रोव्स्की, हुज़ूर, उसके
अलावा और कौन राहगीरों को रोककर तलाशी लेता है...”
“मालूम नहीं, मगर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि वह दुब्रोव्स्की नहीं
था. मुझे उसके बचपन की याद है; मालूम नहीं, उसके बाल, शायद, काले हो गए
हों, मगर तब तो वह भूरे-घुँघराले बालों वाला बच्चा था,
मगर यह भी जानता हूँ, कि दुब्रोव्स्की मेरी
माशा से पाँच साल बड़ा है और इस हिसाब से उसकी उम्र पैंतीस नहीं, बल्कि करीब-करीब तेईस होनी चाहिए.”
“बिल्कुल सही फ़रमाते हैं, जनाब”,
पुलिस कप्तान बोल पड़ा, “मेरी जेब में व्लादीमिर दुब्रोव्स्की
के लक्षण मौजूद हैं. उनमें साफ़ कहा है, कि उसकी उम्र तेईस
साल है.”
“आह!” किरीला पेत्रोविच ने कहा, “वैसे, पढ़ो
तो ज़रा, हम भी तो सुनें, उसके लक्षणों
को जान लेना अच्छा है, कभी नज़र आ जाए, तो
भाग नहीं पाएगा.”
पुलिस कप्तान ने जेब से तह किया हुआ कागज़
निकाला, उसे
खोला, और बड़ी शान से, मानो गाते हुए से,
पढ़ना शुरू किया...
“व्लादीमिर दुब्रोव्स्की की पहचान के लक्षण, उसके भूतपूर्व बँधुआ सेवकों के
हवाले से...
जन्म से तेईसवें साल में, कद मँझोला, चेहरा सफ़ाचट, दाढ़ी बनाते है, आँखें
हैं कत्थई, बाल भूरे, नाक सीधी. ख़ास
लक्षण : ऐसे कोई लक्षण नहीं पाए गए.”
“और, बस?”
“बस”, कप्तान ने कागज़ को वापस जेब में रखते हुए कहा.
“मुबारक हो, कप्तान महाशय! क्या बात है! इन लक्षणों से दुब्रोव्स्की को
ढूँढ़ना कोई अक्लमन्दी का काम नहीं है. कौन मझोले कद का नहीं होता, किसके बाल भूरे नहीं होते, नाक सीधी नहीं होती और
आँखें कत्थई नहीं होतीं. शर्त लगाकर कह सकता हूँ, कि तीन
घण्टों तक भी अगर दुब्रोव्स्की से बातें करते रहो, तब भी यह
गुमान न होगा, कि ख़ुदा ने तुम्हें किसके पल्ले बाँधा है.
लफ़्ज़ ही नहीं हैं मेरे पास, ऐसे बुद्धिमान हैं हमारे पुलिस
कप्तान!”
पुलिस कप्तान ने चुपचाप कागज़ को जेब में रख
लिया और ख़ामोशी से गोभी के साथ बत्तख खाने लगा. इसी बीच सेवक कई बार मेहमानों के
निकट आ चुके थे, उनके
जाम कई बार भर चुके थे. कई बोतलें ख़ाली हो चुकी थीं, चेहरे
लाल हो चले थे, वार्तालाप तेज़, असंबद्ध,
हँसी-ख़ुशी से भरपूर हो चला था.
“नहीं”, किरीला पेत्रोविच कहता रहा, “आजकल
वैसे पुलिस कप्तान नहीं दिखाई देते, जैसा स्वर्गीय तरास
अलेक्सेयेविच था. वह कितना बुद्धिमान, फुर्तीला, एकाग्रचित्त और दक्ष था. बड़े अफ़सोस की बात है, कि उस
बहादुर को जला दिया, वरना उसके हाथ से इस गिरोह का एक भी
आदमी नहीं बच सकता था. वह एक-एक कर सबको पकड़ लेता और स्वयम् दुब्रोव्स्की भी,
रिश्वत देकर भी, बच नहीं सकता था. तरास
अलेक्सेयेविच उससे पैसे भी ले लेता और उसे छोड़ता भी नहीं : ऐसी आदत थी स्वर्गवासी
की. कुछ भी नहीं किया जा सकता, लगता है, मुझे ही कुछ करना पड़ेगा इस मामले में; अपने नौकरों
के साथ ख़ुद ही उस पर हमला करना पड़ेगा, पहली बार में बीस आदमी
भेजूँगा, वे ही डाकुओं के जंगल का सफ़ाया कर देंगे; लोग डरपोक नहीं हैं, उनमें से हरेक भालू के साथ लड़
सकता है, डाकुओं से डरेंगे नहीं”.
“आपका भालू तो ठीक-ठाक है न, हुज़ूर किरीला पेत्रोविच?”
अन्तोन पाफ्नूतिच ने कहा और उसे याद आई अपने रोयेंदार परिचय की और
ऐसे ही अनेक मज़ाकों की जिनका वह कभी शिकार हो चुका था.
“मीशा की उम्र लम्बी थी”, किरीला पेत्रोविच ने उत्तर
दिया. “वीरगति को प्राप्त हुआ वह दुश्मन के हाथों. वह रहा उसका विजेता”, किरीला पेत्रोविच ने देफोर्ज की ओर इशारा करते हुए कहा, “मेरे फ्रांसीसी से अपने आपको बदल लो. उसने बदला ले लिया तुम्हारी...कहने
की इजाज़त दो, …याद है?”
“कैसे याद न होगा”, अन्तोन पाफ्नूतिच ने खुजाते
हुए कहा, “बिल्कुल याद है. तो. मीशा मर गया. अफ़सोस है मीशा
के लिए, ऐ ख़ुदा, सचमुच बड़ा अफ़सोस हुआ.
कैसा शैतान था! कैसा बुद्धिमान! ऐसा भालू और कहीं नहीं
मिलेगा! तो, महाशय ने उसे क्यों मार डाला?”
किरीला पेत्रोविच ने बड़े आनन्द से अपने
फ्रांसीसी की जयगाथा सुनानी शुरू की,
क्योंकि उसमें एक ख़ुशनुमा गुण था, हर उस चीज़
से गर्वित महसूस करने का, जो उसके चारों ओर विद्यमान थी.
मेहमान बड़े ध्यान से मीशा की मौत की दास्तान सुनते रहे और बीच-बीच में अचरजभरी
नज़रों से देफोर्जकी ओर देख लेते, जो इस बात से पूरी तरह
बेख़बर, कि बात उसीकी बहादुरी की हो रही थी, ख़ामोशी से अपनी जगह बैठा था और बीच-बीच में अपने शैतान पाल्य को कुछ
हिदायतें दे देता था.
भोज तीन घण्टों तक चलने के पश्चात् समाप्त हो
गया : मेज़बान ने रूमाल हटाकर मेज़ पर रखा. सभी उठ खड़े हुए और मेहमानख़ाने की ओर चले, जहाँ उनका इंतज़ार कर रहे थे
कॉफ़ी, ताश और वह आमोद-प्रमोद, जो इतने
शानदार तरीके से भोजन कक्ष में आरंभ हुआ था.
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