अध्याय
– 06
‘सब कुछ ख़त्म हो गया,’ उसने अपने आप से कहा, ‘सुबह मेरे पास एक अपना कोना
और खाने का निवाला था. कल मैं यह घर, जहाँ मेरा जन्म हुआ था, पिता की मृत्यु हुई, उसके लिए छोड़ जाऊँगा, जो उसकी मृत्यु और मेरी निर्धनता का कारण है. और उसकी आँखें अपनी माँ की
तस्वीर पर स्थिर हो गईं. चित्रकार ने उसे सुबह वाली सफ़ेद पोषाक में, बालों में लाल गुलाब लगाए, मुँडेर पर झुकते हुए दिखाया
था. ‘यह तस्वीर भी मेरे परिवार के दुश्मन के हाथ पड़ेगी’,
व्लादीमिर ने सोचा, ‘तब शायद उसे टूटी-फूटी
कुर्सियों समेत कबाड़खाने में फेंक दिया जाएगा या शायद मेहमानखाने में टाँगा जाएगा,
जहाँ वह उसके कुत्ते पालने वालों की टीका-टिप्पणियो और उपहास का
पात्र बन जाएगी; और उसके शयनकक्ष में, उस
कमरे में, जहाँ पिता की मृत्यु हुई, उसका
हरकारा बस जाएगा, या शायद वह उसका हरम हो जाएगा. नहीं! नहीं!
जिस घर से वह मुझे निकाल रहा है, वह अभागा घर उसे भी नसीब
नहीं होगा’. व्लादीमिर ने दाँत भींचे, उसके
दिमाग में भयानक विचार उपज रहे थे. सरकारी सहायकों की आवाज़ें उस तक पहुँच रही थीं,
अन्दर उनका ही राज था, वे कभी एक तो कभी दूसरी
चीज़ की माँग करते और उसे अपने नैराश्यपूर्ण विचारों से बाहर ले आते. आख़िरकार सब
कुछ शान्त हो गया.
व्लादीमिर ने अलमारियाँ और दराज़ें खोलीं और
मृतक के कागज़ातों को छाँटने में व्यस्त हो गया. उनमें अधिकांश घरेलू हिसाब सम्बंधी
कागज़ एवम् विविध विषयों पर की गई ख़तो-किताबत शामिल थी. व्लादीमिर बिना पढ़े उन्हें
फ़ाड़ता गया. उनमें उसे एक लिफ़ाफ़ा दिखाई दिया, जिस पर लिखा था, ‘मेरी पत्नी के ख़त’.
आवेग में आकर व्लादीमिर ने उन्हें पढ़ना शुरू किया. वे तुर्की के
युद्ध के दौरान लिखे गए थे और किस्तेनेव्को से सीधे फ़ौज को भेजे गए थे. उसने अपनी
मरुस्थल के समान सूनी ज़िंदगी का वर्णन किया था, घरेलू
परेशानियों का ज़िक्र किया था, नज़ाकत से विछोह पर शिकायत की
थी और उसे घर पर, प्रिय सखी की बाँहों में आने के लिए लिखा थ,
एक ख़त में नन्हे व्लादीमिर के स्वास्थ्य के बारे में चिंता प्रकट की
गई थी, दूसरे में उस नन्हे बालक की योग्यताओं पर हर्ष प्रकट
करते हुए उसके सुखद एवम् समृद्ध भविष्य की भविष्यवाणी की गई थी. व्लादीमिर
पढ़ते-पढ़ते खो गया और अपने आस-पास की दुनिया को भूल गया, पारिवारिक
सुखों की दुनिया में वह पूरी तन्मयता से खो गया और उसे ध्यान ही न रहा कि समय कैसे
बीत गया. दीवार घड़ी ने ग्यारह घण्टे बजाए. व्लादीमिर ने ख़त को जेब में रखा,
मोमबत्ती ली और अध्ययन-कक्ष से बाहर निकला. मेहमानख़ाने में सरकारी
अफ़सर फर्श पर सो रहे थे. मेज़ पर उनके द्वारा खाली किए गए गिलास रखे थे और शराब की
तीखी गन्ध से पूरा कमरा भर गया था. व्लादीमिर घृणापूर्वक उनके निकट से होता हुआ
सामने के कक्ष में गया - दरवाज़े बंद थे.
चाभी न पाकर वह वापस प्रवेश-कक्ष में आया, चाभी मेज़ पर पड़ी
थी. व्लादीमिर ने दरवाज़ा खोला और एक आदमी से टकरा गया, जो
कोने में दुबककर खड़ा था – उसके हाथों में कुल्हाड़ी चमक रही थी. उसकी ओर मोमबत्ती लेकर देखते ही उसने आर्खिप लुहार को पहचान लिया. “यहाँ
तुम क्या कर रहे हो?” उसने पूछा. “आह, व्लादीमिर
पेत्रोविच, यह आप हैं,” आर्खिप ने
फुसफुसाकर कहा, “ख़ुदा, दया करो और
रक्षा करो. यह तो अच्छा हुआ, कि आप मोमबत्ती लेकर आए!”
व्लादीमिर ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा. “तुम यहाँ क्यों छिपे हो?” उसने लुहार से पूछा.
“मैं चाहता था...मैं इसलिए आया था...देखना था
कि सब घर पर हैं या नहीं”,
आर्खिप ने अटकते हुए हौले से जवाब दिया.
“तुम्हारे हाथ में कुल्हाड़ी क्यों है?”
“कुल्हाड़ी क्यों है? बगैर कुल्हाड़ी के आजकल कोई
निकल ही कैसे सकता है. ये सरकारी लोग, देख तो रहे हैं,
कैसे...शैतान हैं...कैसे...”
“तुम नशे में हो, कुल्हाड़ी फेंक दो, जाकर सो जाओ.”
“मैं नशे में? मालिक व्लादीमिर अन्द्रेयेविच, ख़ुदा
गवाह है, एक बूंद भी मुँह में नहीं गई है...और शराब नशा करे
भी तो कैसे, कभी सुनी है ऐसी बात, सरकारी
नौकर हम पर हुकूमत जताने चले, सरकारी नौकर हमारे मालिक को
उनके घर से निकालने चले...कैसे खर्राटे ले रहे हैं, शैतान!
सबको एक साथ ख़त्म करके पानी में फेंकना है!”
दुब्रोव्स्की ने नाक-भौं चढ़ा ली. ‘सुनो, आर्खिप,”
उसने कुछ देर चुप रहकर कहा, “तुम बात को ठीक
से समझे नहीं. सरकारी नौकरों का इसमें कोई दोष नहीं है. लालटेन जलाओ, मेरे पीछे आओ.”
आर्खिप ने मालिक के हाथ से मोमबत्ती ली, भट्टी के पीछे से लालटेन ढूँढ़
निकाली, उसे जलाया और दोनों ख़ामोशी से ड्योढ़ी से उतरकर आँगन
के किनारे-किनारे चले. चौकीदार ने लोहे का घंटा बजाना शुरू किया, कुत्ते भौंकने लगे. “चौकीदार कौन है?” दुब्रोव्स्की
ने पूछा. “हम हैं, मालिक”, एक पतली
आवाज़ ने उत्तर दिया, “वसीलिसा और लुके-या, अपने-अपने घर जाओ,” दुब्रोव्स्की ने उनसे कहा,
“तुम्हारी ज़रूरत नहीं है”. “बस हो गया”, आर्खिप
ने विनती की. “धन्यवाद, अन्नदाता”, औरतें
बोलीं और फ़ौरन घर चली गईं.
दुब्रोव्स्की आगे बढ़ा. दो आदमी उसके निकट आए, उन्होंने उसे आवाज़ दी.
दुब्रोव्स्की ने अन्तोन और ग्रीशा की आवाज़ पहचानी. “तुम लोग सोते क्यों नहीं?”
उसने उनसे पूछा. “नींद कहाँ से आएगी”, अन्तोन
ने जवाब दिया. “क्या दिन देखना पड़ा है, कौन सोच सकता था!”
“धीरे!” दुब्रोव्स्की ने टोका. “इगोरोव्ना कहाँ
है?”
“मालिकों के घर, अपने कमरे में”, ग्रीशा ने जवाब
दिया.
“जाओ उसे यहाँ ले आओ, और घर से अपने सभी लोगों को
बुला लाओ, देखो, सरकारी लोगों को छोड़कर
एक भी वहाँ रहने न पाए, और तुम, अन्तोन, गाड़ी जोतो.”
ग्रीशा चला गया और एक मिनट बाद अपनी माँ के साथ
वापस आया. बुढ़िया ने उस रात कपड़े भी नहीं बदले थे, सरकारी लोगों को छोड़कर घर में किसी की भी आँख नहीं लगी थी.
“सब आ गए?” दुब्रोव्स्की ने पूछा, “कोई घर में
तो नहीं रह गया?”
“सरकारी लोगों के अलावा कोई नहीं,” ग्रीशा ने जवाब दिया.
“घास-फूस लाओ”, दुब्रोव्स्की ने कहा.
लोग अस्तबल की ओर भागे और हाथों में घास-फूस
लेकर आए.
“ड्योढ़ी के नीचे बिछाओ. ऐसे. तो, जवानों, आग...!”
आर्खिप ने लालटेन खोली, दुब्रोव्स्की ने मशाल जलाई.
“रुको”, उसने आर्खिप से कहा, “लगता है,
जल्दी में मैं मेहमानखाने के दरवाज़े बंद कर आया, जल्दी जाकर उन्हें खोल दो.”
आर्खिप भागा, दरवाज़े खुले हुए थे. आर्खिप ने उन्हें बंद करके चाभी घुमाई,
हौले से बोला, “अब खोल लो!” और दुब्रोव्स्की
के पास वापस आया.
दुब्रोव्स्की मशाल को नज़दीक लाया, घास-फूस ने आग पकड़ ली, लपटें ऊँची उठने लगीं और पूरे आँगन को आलोकित करने लगीं.
“आह!” शिकायत के सुर में इगोरोव्ना चिल्लाई, “व्लादीमिर अन्द्रेयेविच,
ये तुम क्या कर रहे हो?”
“चुप”, दुब्रोव्स्की ने कहा. “अच्छा बच्चों, अलबिदा, ख़ुदा की जहाँ इच्छा होगी, वहाँ जाऊँगा, ख़ुश रहो अपने नए मालिक के साथ!”
“हमारे माई-बाप, अन्नदाता”, लोगों ने जवाब दिया,
“मर जाएँगे, मगर तुम्हें नहीं छोड़ेंगे,
तुम्हारे साथ ही चलेंगे!”
घोड़े तैयार थे. दुब्रोव्स्की ग्रीशा के साथ
गाड़ी में बैठ गया और उनसे किस्तेनेव्को के वन में मिलने को कहा. अन्तोन ने घोड़ों
को चाबुक मारा, और
वे आँगन से बाहर निकले.
हवा चलने लगी. एक ही मिनट में लपटों ने पूरे घर
को अपनी चपेट में ले लिया. छत से लाल-लाल धुँआ निकलने लगा. शीशे चटखने लगे, चूर-चूर हो गए, जलती हुई शहतीरें गिरने लगीं, आर्त स्वर में
चीख़-पुकार सुनाई देने लगी, “बचाओ, जल
रहे हैं, बचाओ!” “ठेंगे से!” लपटों की ओर देखते हुए कटु
मुस्कान से आर्खिप ने कहा. “आर्खिपूश्का”, इगोरोव्ना ने कहा,
“उन दीवानों को बचाओ, ख़ुदा तुम्हें इनाम
देगा”.
“ठेंगे से!” लुहार ने जवाब दिया.
इसी क्षण दोहरी खिड़कियों को तोड़ने की कोशिश करते
हुए सरकारी नौकर दिखाई दिए.
मगर तभी चरमराहट की आवाज़ के साथ एक शहतीर गिरी और उनकी चीख़ें शान्त
हो गईं.
जल्दी ही सारे सेवक आँगन में निकल आए. औरतें
चीखती हुईं अपने सामान को बचाने दौड़ी,
आग को देखकर बच्चे ख़ुशी से कूदने लगे. आग के इस तूफ़ान के साथ
चिंगारियाँ उड़ने लगीं, झोंपड़ियाँ जलने लगीं.
“अब सब ठीक है”, आर्खिप बोला, “कैसा जल रहा है,
हाँ? पक्रोव्स्कोए से देखने पर बड़ा मज़ा आएगा!”
इसी समय एक नई घटना ने उसका ध्यान अपनी ओर
आकर्षित किया: जलती
हुई सराय की शहतीर पर एक बिल्ली बदहवासी से भाग रही थी, वह
समझ नहीं पा रही थी कि किधर कूदे, लपटों ने उसे चारों ओर से
दबोच लिया था. बेचारा गरीब जानवर आर्ततापूर्वक म्याऊँ-म्याऊँ करते हुए मदद माँग
रहा था. उसके बदहवासी को देखकर बच्चे हँसते-हँसते लोट-पोट हुए जा रहे थे.
“क्यों हँसते हो, शैतानो?” लुहार ने क्रोधपूर्वक उनसे
कहा, “ख़ुदा से डर नहीं लगता, ख़ुदा का
बनाया हुआ जीव मर रहा है और तुम बेवकूफ़ों की तरह ख़ुश हो रहे हो?” और जलती हुई शहतीर तक सीढ़ी लगाकर वह बिल्ली तक पहुँच गया. वह उसके
उद्देश्य को समझ गई और धन्यवाद का भाव लिए तुरन्त उसकी बाँहों में कूद गई. अधजला
लुहार उसके साथ नीचे उतरा. “अच्छा बच्चों, अलबिदा!” उसने
हैरान-परेशान सेवकों से कहा, “अब मेरा यहाँ कोई काम नहीं है.
ख़ुश रहो, मुझे बुरा न समझना.”
लुहार चला गया.आग कुछ देर और तांडव करती रही.
आख़िरकार मंद पड़ गई, और दहकते कोयले के ढेर रात के अँधेरे में जलते रहे और उनके निकट
किस्तेनेव्को के झुलसे हुए निवासी घूमते रहे.
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